Saturday, August 26, 2017

खैर जलने दो!

जलती मशाल और तलवार
लाएं हैं हम
खिड़की से उतर कर आओ तो सही

जलाएं हैं पहले
जलाएंगे फिर से
जलाने की जश्न में लेकर जायेंगे तुम्हे.

ज़िन्दगी के पेहलियों से
आज़ाद होने की सुनवाई दी है किसीने
युक्ति मिल गयी है इसीलिए
उद्भ्रांतों के मेले में
अंधों की जीत मनाने 

जलने दो

इस जिस्म की बाजार में
आबरुओं का शनाक्त करने
जिस्मों का कब्र ज़रूरी है

उनके ढेर बनने दो

काफिरों की मैदान में
और एक काफिर आया है
विश्वास का रंग ओढ़े
खोकले शौर्य को ललकारने

कम्बख्त सच के 
बेहलाये-झुठलाए हाथों में
आज भी ज़िन्दगी जल रही है
और थोड़ा किरच ही तो डाला है
उसमें हर्ज ही क्या है?


खैर जलने दो!

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